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अनंत / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

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उस दिन
अपने अन्दर के
ब्रह्माण्ड में
झाँका कितनी
भीड़ थी रिश्तों की,
नातों की
दौड़ थी, भाग थी
हाथ-पाँव
चल रहे थे...
एक पूरी दुनिया
इस ब्रह्माण्ड में
समायी हुई थी

पर एक कोने
में मैंने देखा
मैं अपना ही
हाथ थामे
अनन्त को निहारते
अकेले खड़ी हूँ।