भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बारिश : चार प्रेम कविताएँ-3 / स्वप्निल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:19, 8 अगस्त 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वप्निल श्रीवास्तव |संग्रह=ताख़ पर दियासलाई }} एक दि...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


एक दिन मैं तुम्हें

भीगता हुआ देखना चाहता हूँ

प्रिये


बरिश हो और हवा भी हो

झकझोर

तुम जंगल का रास्ता भूल कर

भीग रही हो


एक निचाट युवा पेड़ की तरह

तुम अकेले भीगो

मैं भटके हुए मेघ की तरह

तुम्हें देखूँ

तुम्हें पता भी न चले कि

मैं तुम्हें देख रहा हूँ


फूल की तरह खिलते हुए

तुम्हारे अंग-अंग को देखूँ

और मुझे पृथ्वी की याद आए