भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चांदनी छत पे चल रही होगी / दुष्यंत कुमार

Kavita Kosh से
Navincchaturvedi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:55, 30 अगस्त 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चांदनी छत पे चल रही होगी
अब अकेली टहल रही होगी

फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा
बर्फ़-सी वो पिघल रही होगी

कल का सपना बहुत सुहाना था
ये उदासी न कल रही होगी

सोचता हूँ कि बंद कमरे में
एक शमअ-सी जल रही होगी

तेरे गहनों सी खनखनाती थी
बाजरे की फ़सल रही होगी

जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया
उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी