भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ठप्पा / सजीव सारथी

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:07, 3 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= सजीव सारथी |संग्रह=एक पल की उम्र लेकर / सजीव सार…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ दार्शनिक हो जाते हैं,
पोथियाँ लिख डालते हैं बड़ी बड़ी,
रहस्य फ़िर भी अनुत्तरित रह जाते हैं,
कुछ बुद्धिजीवी बन जाते हैं,
मनवा लेते हैं हर बात तर्क से,
पर भीतर –
एक खोखलापन कसोटता रह जाता है,
कुछ धार्मिक हो जाते हैं,
रट लेते हैं वेद पुराण,
कंटस्थ कर लेते हैं,
और बन जाते हैं तोते,
करते रहते हैं वमन -
कुछ उधार लिए हुए शब्दों का उम्रभर,
और दूकान चलाते हैं,

कुछ नास्तिक हो जाते हैं,
नाकार देते हैं सिरे से हर सत्ता को,
हर सत्य को,
अपने अंहकार में निगल लेते हैं
कभी ख़ुद को,

कुछ सिंहासनों पर चढ़ बैठते हैं,
जीभ लपलपाते हैं
कुबेर के खजानों पर बैठकर,
जहरीले नागों की तरह,

बहुत से रह जाते हैं –
खाली बर्तनों की तरह,
कभी दार्शनिक तो कभी
तर्कशास्त्री हो जाते हैं,
सुविधानुसार - धार्मिक और नास्तिक भी,
धन मिल जाए तो राजा,
वरना फकीरी को वरदान कह देते हैं,
आड़म्बरों में जीते हैं,
और भेड़चाल चलते हैं,
पाप भी करते हैं और
एक डुबकी लगा कर पवित्र भी हो लेते हैं,

मगर कुछ बदनसीब
ऐसे भी रह जाते हैं,
जिनपर कोई रंग नही चढ़ पाता,
बर्दाश्त नही कर पाती दुनिया -
उनकी आँखों का कोरापन,
कड़वे ज़हर सी लगती है,
उनकी जुबान की सच्चाई
उनका नग्न प्रेम नागवार गुजरता है
दुनिया के दिल से,
जीते जी उन्हें हिकारत मिलती है,
और मरने के बाद परस्तिश,
चूँकि दुनिया का दस्तूर है -
कोई नाम जरूरी है,
तो ठोंक दिया जाता है,
मरने के बाद उनके नामों पर भी,
कभी संत, कभी प्रेमी
तो कभी कवि होने का ठप्पा....