Last modified on 3 सितम्बर 2011, at 15:44

शह और मात / सजीव सारथी

Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:44, 3 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= सजीव सारथी |संग्रह=एक पल की उम्र लेकर / सजीव सार…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मन की शतरंज,
चौंसठ दोरंगी खानों की बिसात,
उस पार सोलह मोहरे तुम्हारे,
इस पार सोलह मेरे,
तुम - आशा के अनुरूप,
अडिग, आश्वस्त, और निश्चिंत.
मैं, बीते अनुभवों से कुछ,
सहमा, डरा, और अव्यवस्थित,

तुमने इजहार का प्यादा आगे किया,
तो मैंने तकरार का रोढा अड़ा दिया,
मेरे इनकार के मजबूत प्यादे को,
तुम्हारे इकरार के नाज़ुक वार ने
ख़ाक कर दिया,

सेंध लग चुकी थी,
तुम उन्मुक्त नदी सी बह आयी,
और मेरे अहम् और गरूर के
ऊंटों को निगल गयी,

कामना और वासना के
दो बेलगाम घोड़े भी,
नतमस्तक हो गए,
तुम्हारे समर्पण के आगे,

मेरे दो दमदार साथी,
साधना और तपस्या के हाथी,
बस मुंह देखते रह गए,
और तुमने जीत लिया -
मेरे विश्वास का वज़ीर.

जानता हूँ अब,
प्रेम रुपी बादशाह की
किलाबंदी टूट चुकी है,
प्रेम पर प्रेम का क़ब्जा हो चुका है,

बेशक रही एक तरफा,
इस बाजी की हर बात,
पर सच कहूँ ?

मैंने ख़ुद को विजेता सा पाया,
जब तुमने मुस्कुराते होंठों से कहा –
यह शह है और ये मात....