पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ - १
दृश्य जगत्
हिमाचल
(1)
गीत
अवलोकनीय अनुपम।
कमनीयता- निकेतन।
है भूमि में हिमाचल।
विभु-कीत्तिक कान्त केतन॥1॥
है हिम-समूह-मंडित।
हिमकर-समान शोभन।
सुन्दर किरीट-धारी।
ललितांग लोक-मोहन॥2॥
उसकी विशालता है।
वसुधा-विनोद- सम्बल।
उसको विलोकता है।
बन मुग्ध देव-मंडल॥3॥
सुन्दर सुडौल ऊँचे।
उसके समस्त तरुवर।
नन्दन-विपिन-विटप से।
शोभा-सदन मनोहर॥4॥
कर लाभ फूल, फल, दल।
जब हैं बहुत विलसते।
तब कौन-से नयन में।
वे रस नहीं बरसते॥5॥
पा स्वर्ग-छवि न कैसे।
सुर-सुन्दरी कहायें।
किसको नहीं लुभातीं।
उसकी ललित लताएँ॥6॥
उसकी जड़ी व बूटी।
बन कल्प-बेलि के सम।
बहुरूप दिव्य दलमय।
कामद फलद मनोरम॥7॥
करती विविध क्रिया हैं।
दिखला विचित्रताएँ।
हैं रात में दमकती।
बन दीप की शिखाएँ॥8॥
बन वाष्प घूमते हैं।
घन वारि हैं बरसते।
अन्तिम मिहिर-किरण ले।
या हैं बहुत विलसते॥9॥
हैं द्वार पर दरी के।
परदे रुचिर लगाते।
अथवा वहीं बिखर कर।
हैं जालियाँ बनाते॥10॥
घुसकर किसी सदन में।
हैं बहु वसन भिंगोते।
या हो तरल अधिकतर
हैं भित्तिक-चित्रा धोते ॥11॥
धार कर स्वरूप कितने।
हैं बहु विहार करते।
मुक्ता-समूह उसमें।
हैं वारिवाह भरते॥12॥
हिम से हिला-मिला-सा।
है सानु पर दिखाता।
या सिक्त घाटियों को।
है घन-पटल बनाता॥13॥
है नीर पान करता।
धुरवा धुरीण बनकर।
या डाल-डाल झूला।
है झूलता शिखर पर॥14॥
बूँदें बड़ी गिराकर।
जल-वाद्य है बजाता।
कर नाद वसु-पदों को।
पर्जन्य है खिजाता॥15॥
जब गैरिकादि को है।
निज वारि में मिलाता।
तब मेघ मेरु को है।
बहुरंग पट पिन्हाता॥16॥
मृगनाभि से सुगंधिकत।
वह है सदैव रहता।
उसमें सरस समीरण।
है मन्द-मन्द बहता॥17॥
कर रव, सुधा श्रवण में।
जल-स्रोत डालते हैं।
झरने उछल-उछलकर।
मोती उछालते हैं॥18॥
कल अंक मध्य उसके।
छवि रत्न-राजि की है।
खा बनी रजत की।
सरिता विराजती है॥19॥
ऐसा त्रिकलोक-सुन्दर।
किस ऑंख में समाया।
महि ने न दूसरा गिरि।
हिमगिरि-समान पाया॥20॥