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कबीर दोहावली / पृष्ठ ७

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निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह ।
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥

मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान ।
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥

और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय ।
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥

जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं ।
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥

इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय ।
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥

शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥

कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव ।
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥

सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत ।
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥

कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं ।
बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥

बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय ।
साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥

बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय ।
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥

एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ ।
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥

जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय ।
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥

उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग ।
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥

तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल ।
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥

तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल ।
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥

ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर ।
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥

आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं ।
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥

जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि ।
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥

कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥

सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और ।
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥

सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय ।
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥

संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय ।
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥

मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त ।
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥

दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव ।
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥

सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त ।
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥

आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान ।
हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥

आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर ।
शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥

यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय ।
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥

कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस ।
सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥

साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह ।
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥

साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय ।
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥

सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ ।
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥

आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच ।
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥

साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब ।
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥

सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय ।
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥

हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय ।
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥

साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग ।
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥

सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग ।
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥

॥ भेष के विषय मे दोहे ॥

चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस ।
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥

बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥

साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार ।
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥

तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय ।
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥

जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार ।
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥

शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव ।
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥

गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द ।
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥

पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय ।
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥

गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख ।
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥

मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥

भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान ।
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥

कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट ।
मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥

बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम ।
मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥

फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल ।
साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥

बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥

धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग ।
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥

घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग ।
बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥

॥ भीख के विषय मे दोहे ॥


उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष ।
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥

अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख ।
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥

माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं ।
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥

माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख ।
कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥

उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर ।
अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥

आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह ।
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥

सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि ।
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥

अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय ।
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥

अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष ।
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥

॥ संगति पर दोहे ॥


कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय ।
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥

कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय ।
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥

मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥

साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह ।
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥

साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग ।
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥

साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय ।
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥

गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार ।
मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥

संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय ।
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥

भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय ।
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥

तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल ।
काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥

काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान ।
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥

कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव ।
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥

मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय ।
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥

ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट ।
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥

साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह ।
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥

ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय ।
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥

जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय ।
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥

दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय ।
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥

जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय ।
ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥

प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय ।
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥

कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय ।
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥

सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात ।
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥

तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज ।
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥

मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ ।
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥

लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति ।
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥

साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग ।
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥

संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग ।
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥

तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल ।
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥

साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय ।
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥

संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत ।
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥

चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय ।
ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥

सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग ।
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥


॥ सेवक पर दोहे ॥


सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय ।
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥

तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय ।
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥