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एक छत के नीचे / सजीव सारथी

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उनके शहर में फ़िर सुबह हुई,
शहर के मुर्गे की बांक -
अलार्म घड़ी का,
साहब को आखिर उठा कर ही माना,
थके मांदे थे कल रात के,
फ़िर भी उठे, जैसे किसी
जुर्म का भार हो सर पर,
नल की टूटी खोली और,
वाश बेसन में ही धो डाला -
रात का चेहरा
मेम साहब भी उठी,
और खिड़की के परदे हटा कर,
बाहर झाँकने लगी,
सामने वाली बिल्डिंग के पीछे से कहीं,
उजाला फूट रहा था,
सड़क पर चहल-पहल लग गयी थी,
गाड़ियों के शोर में भी सुनाई आ रहा था,
हल्का हल्का कलरव चिडियों का,
नौकर चाय ले आया था,
और साथ में अखबार भी,
साहब ने अखबार उठाकर,
पलटना शुरू किया,
बिसनेस न्यूज़ पर आकर रुके,
शेयर्स के भाव....
औद्योगिक क्रांति से बहुत खुश थे साहब,
तभी उनको ख्याल आया मीटिंग का,
घड़ी देखी तो बौखला गए,
सिगरेट जला ली और
फटाफट तैयार होने लगे.
वहीं मेम साब बड़ी तसल्ली से
अपने दिन की योजनाओं पर
नज़र डाल रही थी -
शोप्पिंग.....डेंटिस्ट से मुलाकात...
सोशल वर्क के लिए
जमुना स्लम बस्ती में जाना...
और फ़िर शाम को
रेखा के घर फैंसी ड्रेस पार्टी...और डिनर...
लक्की रेखा...इकलौता बेटा अमेरिका जो जा रहा है...

दादा जी ने रोहन को,
ख़ुद तैयार किया था, स्कूल के लिए,
सारे रस्ते रोहन बोलता रहा,
दादाजी हँसते रहे,
स्कूल के गेट पर,
दादाजी ने रोहन को,
उसका बैग थमा दिया,
दादाजी को एक प्यारी सी "किस्सी" देकर,
रोहन अपने क्लास की तरफ़ दौड़ गया,
दादाजी उसे देखते रहे,
अपनी आँखों से ओझिल होने तक,
और फ़िर.....

लौट आए अपने खाली मकान में,

बेटा-बहु कह गए थे फ़िर -
"आज रात देर से लौटेंगे"