भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धीरे चलो, धीरे बंधु / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:53, 9 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=रवीन्द्रनाथ ठाकुर }} {{KKCatKavita‎}} Category:बांगला <poem> धी…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: रवीन्द्रनाथ ठाकुर  » धीरे चलो, धीरे बंधु

धीरे चलो, धीरे बंधु,लिए चलो धीरे ।
मंदिर में, अपने विजन में ।
पास में प्रकाश नहीं, पथ मुझको ज्ञात नहीं ।
छाई है कालिमा घनेरी ।।
चरणों की उठती ध्वनि आती बस तेरी
रात है अँधेरी ।।
हवा सौंप जाती है वसनों की वह सुगंधि,
तेरी, बस तेरी ।।
उसी ओर आऊँ मैं, तनिक से इशारे पर,
करूँ नहीं देरी !!


मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल