भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बस इतना--अब चलना होगा / भगवतीचरण वर्मा

Kavita Kosh से
198.190.230.62 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 21:58, 22 अगस्त 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भगवतीचरण वर्मा }} बस इतना--अब चलना होगा फिर अपनी-अपनी र...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बस इतना--अब चलना होगा

फिर अपनी-अपनी राह हमें ।


कल ले आई थी खींच, आज

ले चली खींचकर चाह हमें

तुम जान न पाईं मुझे, और

तुम मेरे लिए पहेली थीं;

पर इसका दुख क्या? मिल न सकी

प्रिय जब अपनी ही थाह हमें ।


तुम मुझे भिखारी समझें थीं,

मैंने समझा अधिकार मुझे

तुम आत्म-समर्पण से सिहरीं,

था बना वही तो प्यार मुझे ।


तुम लोक-लाज की चेरी थीं,

मैं अपना ही दीवाना था

ले चलीं पराजय तुम हँसकर,

दे चलीं विजय का भार मुझे ।


सुख से वंचित कर गया सुमुखि,

वह अपना ही अभिमान तुम्हें

अभिशाप बन गया अपना ही

अपनी ममता का ज्ञान तुम्हें

तुम बुरा न मानो, सच कह दूँ,

तुम समझ न पाईं जीवन को

जन-रव के स्वर में भूल गया

अपने प्राणों का गान तुम्हें ।


था प्रेम किया हमने-तुमने

इतना कर लेना याद प्रिये,

बस फिर कर देना वहीं क्षमा

यह पल-भर का उन्माद प्रिये।

फिर मिलना होगा या कि नहीं

हँसकर तो दे लो आज विदा

तुम जहाँ रहो, आबाद रहो,

यह मेरा आशीर्वाद प्रिये ।