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मानते हैं / हरीश बी० शर्मा

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हर क्षण डर दस्तक का
फड़फड़ाते कलेंडर के हर्फों पर दिखते
भयावही आगामी आकर्षण
अनचाहे राग-बियाबां, परबत, समंदर
और मेरी कसी हुई सरहदें।
फिर भी हमने जिंदगी जीकर बताई है
जूझते जरूरतों से
गला घोंटते अपनत्व का
चिता सजाते-भस्म करते
मानते हैं-कुछ भी नहीं कर रहे हैं हम
हो रहा है सब ऑटोमैटिक।