भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विदा करने निकली जब माता / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
72.66.83.170 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 00:02, 31 अगस्त 2007 का अवतरण
विदा करने निकली जब माता
पग से लिपट रो पड़ी बहुएं, न्याय यही कहलाता ?
हमने बचपन साथ बिताये
ब्याह हुआ संग संग पति पाये
सीता को ही दुःख दिखलाये
क्यों नित नए विधाता ?
कोमल चित थे जेठ हमारे
बंधु खड़े क्यों चुप्पी धारे
छिपे कहाँ वे ऋषि मुनि सारे
कोई तो समझाता !
तब वन में था बल स्वामी का सिर पर था न अयश का टीका अब तो छूट रहा भगिनी का इस घर से ही नाता