भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम्हारी याद / प्रभात कुमार सिन्हा
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:04, 15 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभात कुमार सिन्हा |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> कितनी …)
कितनी अवगम्य थी तुम्हारी याद
हृदय की संवेदनशील उदारता
चेहरे पर
त्योहार की -सी ख़ुशी रहती थी
सहसा तुम्हारी याद आयी
जैसे
इस पुराने मकान की दीवार से
झाँकने लगे पीपल के पौध
जैसे
कई दिनों बाद
फोन के निर्जीव खम्भे पर पीली चिड़ियाँ बैठी
याद आयी
बात-बात पर
खिल-खिल पड़ने वाली हँसी
हँसी से ठिठक पड़े थे हेमंत के बादल
हवा में सरसराहट थी
दूब एक-दूसरे के कंधे छूने लगे थे
सहसा तुम्हारी याद आयी
रक्त में हरकत करती हुई
तुम्हारी याद उदासी की काई को तोड़ती है
ज्यों
मन के एकांत पोखर में
फैलती है सिंघारे की लतर
मानसून के थपेड़ों के बीच
जल के संभार से भारी हुई धरती
ज्यों सूरज की याद करती है
वैसे ही
सहसा याद आयी तुम्हारी