भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जून - अनुचिता / जगन्नाथ प्रसाद दास

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:09, 16 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगन्नाथ प्रसाद दास |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}}<poem>१. जल कण ह…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

१.

जल कण हाथ की पकड़ में नहीं आते
बादल रूप बदल कर चले जाते हैं
क्या कभी संभव है
सूर्य को लाकर
समुद्र के अनंत में फ़ैंकना

२.

प्रतीक्षा की झिलमिल बंजर लांघ
मृग जल चमकता है लक्ष्य स्थल में
खोजी आंखे दौड़ जाती हैं अभीष्ट की ओर
जाकर टकराती हैं प्रतिबिंबित भ्रम से
जहां पानी का नामोनिशान नहीं
पक्षी डूबता उतराता है अपने ही खून में

३.

धरती उचाट रहती है
बादल के प्रत्येक घटातर में
बैठी सोचती रहती है
बारिश की आसन्न संभावना
यह बात किंतु घास - फूल को
शुरू से ही मालूम थी

४.

रात सबसे अधिक खतरनाक है
बहुविध हतोत्साही उपलब्धियां लाती है
विभिन्न भयंकर प्रहरों में
अनायास सिद्ध कर जाती है
देह से मधुर यंत्रणा
यंत्रणा से सहज मृत्यु
प्रत्युष फिर भी लाकर सजा जाता है
न जाने क्यों
सूक्ष्मातिसूक्ष्म जिजीविषाओं को
खुले झरोखों के चौखटों पर

५.

समय से बाजी लगाकर
अपनी गणना से
भाग्य को खदेड़ दो
नहीं तो देखोगे
तुम कैसी मृत्यु वरण करोगे
उसी एक मात्र चिंता से
तुम्हारा सारा जीवन पूरा हो जाएगा

६.

तुम व्यस्त रहते हो
दूर देखना है या पास
कल आज या कल
व्यतीत वर्तमान या भवितव्य
पर सब निरर्थक है
समय से परे खड़े होओ तो देखोगे
किसी से किसी का विरोध नहीं
जो नित्य वर्तमान है
वही है चिरंतन भविष्य

...

रूपातंर-डा. राजेंद्र प्रसाद मिश्र