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तुम कहाँ होती हो / नंदकिशोर आचार्य

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तुम कहाँ होती हो ?
हवाएँ साँसों की अधीरता में
कसमसाती हैं
वनस्पतियाँ त्वचा की कामना में
सुगबुगाती हैं
अपने आप को पाने बेचैन प्राणों में
छटपटाता भटकता है जल
समूची सृष्टि
तुम का थाम लेने
एक देह उदग्र !
तुम को घेर लेने
एक हहराती लपट आकुल !

तब तुम कहाँ होती हो
अपने ही लिए
समूचे अस्तित्व की इस तड़प को
एक लय करती हुई ?
तुम कहाँ होती हो ?

(1980)