भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चूड़ियाँ / रजनी अनुरागी

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:18, 17 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रजनी अनुरागी |संग्रह= बिना किसी भूमिका के }} <Poem> स…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


सजती हैं जो कलाई पर रंग बिरंगी चूड़ियाँ
उनमें कैद होता है कितने बच्चों का मासूम बचपन
उजले भविष्य की उम्मीद में

किसी की कलाई सजाने में ठूँठ हो गए होते हैं हाथ
हजार पन्द्रह सौ डिग्री सेल्सियस पर दहकती भट्ठियों में
पिघल जाता है कांच और रक्त हो जाता है पानी
दोनों होकर एकाकार शरीर में दौड़ने लगते हैं जब
बचपन में ही सठिया जाता है शरीर
बुझते कोयले सी हो जाती हैं आँखें
और धुंआ हो जाते हैं आँसू
पिघल जाती हैं उँगलियाँ मोम सी
बच्चे तब्दील हो जाते हैं दहकते अंगारों में
और उन पर बनने लगती हैं अनगिनत चूड़ियाँ
नन्हे नन्हे हाथ चूड़ियों के जोड़ों को जोड़ते-जोड़ते
छालों और घावों में बदल जाते हैं
टूटी हुई चूड़ी सा चटक कर रह जाता है जीवन
 
खनखनाती चूड़ियों के भीतर से
सुनाई नहीं देती छालों की टीसें
उनके रंगों की आभा और आकर्षण में छुप जाता है
किसी के बचपन का खून

किसे मालूम
कि जो पहनी जाती है सुहाग और मर्यादा के नाम पर
वो चूड़ियाँ किसी की भूख से बनी है
किसी गुलाम बच्चे के खून सनी है
औरत को पराधीन करने के लिए बनी है