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कब होती है कोई आह्ट /वीरेन्द्र खरे अकेला

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कब होती है कोई आहट
चुपके से आता है संकट
 
अक्सर जल बिखरा रहता है
तेरी आँखें हैं या पनघट
 
तेरे बिन मैं तड़प रहा हूँ
होगी तुझको भी अकुलाहट
 
कैसे आए नींद कि दिल में
है उसकी यादों की खटपट
 
कहते थे मैं नौसीखा हूँ
पूरी बोतल पी ली गट-गट
 
एक ज़रा सा दिल बेचारा
और ज़माने भर के झंझट
 
क्यों करते हो फ़िक्र 'अकेला'
वक़्त भी आख़िर लेगा करवट