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बस एक रेतीला सपाट है / नंदकिशोर आचार्य

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न ऊँचाइयाँ हैं, न गहराइयाँ
बस एक रेतीला सपाट है
दूर तक पसरा हुआ, निश्छाय, तपता ....

जपता नाम कोई
कहाँ तक उड़ता अबाध मरूथल में
प्यासा कलपता पाखी
ढूँढ़ता छाया अपनी ही परछाई में
आ गिरता जलती रेत पर बेबस
तड़पता, झुलस जाता है।

सपना फल रहा था जो
आँखों से निकल कर
ढुलकने भी नहीं पाता
सूख जाता है !

निस्संग पसरा हुआ
निश्छाय, रेतीला सपाट
तपता रहता है।

(1982)