भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जगरा बुझ रहा है / नंदकिशोर आचार्य

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:12, 19 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नंदकिशोर आचार्य |संग्रह=बारिश में खंडहर / नंदकि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


रेत चारों फेर
पसरी हुई है
मौत-सी ठंडी, अँधेरी,
जगरा बुझ रहा है यह
थाप-थाप कर सँजोयी यादें
हो रही हैं राख जल-जल कर।

देखूँ, कहीं राख की परतों के नीचे
कोई बचा हो अंगार
जो एक पल के लिए छोटी-सी लपट दे दे
तुम्हारे चेहरे की सोयी दहक
जिस में दमक जाये पलक भर

फिर रात रेत-सी
रहे पसरी हुई चारों फेर चाहे
मौत-सी ठंडी, अँधेरी।

(1982)