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जगरा बुझ रहा है / नंदकिशोर आचार्य
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रेत चारों फेर
पसरी हुई है
मौत-सी ठंडी, अँधेरी,
जगरा बुझ रहा है यह
थाप-थाप कर सँजोयी यादें
हो रही हैं राख जल-जल कर।
देखूँ, कहीं राख की परतों के नीचे
कोई बचा हो अंगार
जो एक पल के लिए छोटी-सी लपट दे दे
तुम्हारे चेहरे की सोयी दहक
जिस में दमक जाये पलक भर
फिर रात रेत-सी
रहे पसरी हुई चारों फेर चाहे
मौत-सी ठंडी, अँधेरी।
(1982)