Last modified on 10 सितम्बर 2007, at 23:45

खोज / मधु शर्मा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:45, 10 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधु शर्मा |संग्रह=जहाँ रात गिरती है }} इतने हसीन मंज़र थ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

इतने हसीन मंज़र थे

उनकी बरछियाँ चुभती रहीं

दिमाग़ उनकी झिलमिली में उलझा

मन भूला

और देह पर गिरा

सारा युद्ध


मैं एक हारी हुई योद्धा--

मैदानों में दूर तक

छितरी हैं देहें मेरी

मैं आत्माओं को खोजती हूँ

छिन्न-भिन्न ।