भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज़ादी हमको मिली कहाँ/वीरेन्द्र खरे 'अके'ला

Kavita Kosh से
Tanvir Qazee (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:17, 27 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' |संग्रह=सुबह की दस्तक / व…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुरझाई थी जो बगिया देखो तो अब तक खिली कहाँ
चले गए अंग्रेज़ मगर आज़ादी हमको मिली कहाँ

हुए स्वशासित मत बोलो, बोलो हम हुए स्वशोषित हैं
पहले ग़ैरों से थे अब अपनों से हुए प्रताड़ित हैं
निराशाओं के बंदीगृह से छूटी ज़िन्दादिली कहाँ
मुरझाई थी जो बगिया....

हम पर भूख-ग़रीबी का मज़बूत अभी भी पहरा है
पहले शासन अँधा था अब गूंगा, लंगड़ा, बहरा है
फटी कमीज़ बसंता की देखो तो अब तक सिली कहाँ
मुरझाई थी जो बगिया....

ये कैसी आज़ादी, कैसे ये सत्ता-परिवर्तन हैं
मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सिमटे सुख-साधन हैं
वो सामंती वटवृक्षी जड़ देखो अब तक हिली कहाँ
मुरझाई थी जो बगिया...