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हिम पिघला है / कविता वाचक्नवी
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हिम पिघला है
कुत्सित लांछन के
आतप का
हिम
पिघला है
पिघला है
संगीत
फगुनिया रंग तरसता,
पिघले
अश्रु-कोर
चक्षु के
छलनाओं के बोल,
दंभ के
क्लांत अंक में।
भुज-बंधों की
शांत किलोलें
आरोहण
मन के मंत्रों का
भभका जाता
प्रबल गगन में,
व्योम के
श्रवण-छोर पर।
उद्वेलित मन
सागर-सा
उर्वर आँचल पर
पिघला है
नत-नयन
निमंत्रण
सलिल-राग-नव भर
अंतर में।
चक्रवात में
खंड
शिला के,
सतत घुटन से
प्राणों का
निष्क्रमण
कायकी हिम-वसनों से,
अविरल, अविकल
मधु-तरंग की
उच्छ्वासों का
सतत निरंतर शोर
ओर न छोर
भ्रांत के
भँवर-जाल को तोड़
नदी में
हिम पिघला है।