भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बंजारे दिन / मधुप मोहता
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:11, 11 अक्टूबर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधुप मोहता |संग्रह=समय, सपना और तुम ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
बंजारे दिन घूम रहे हैं,
गांव-गांव कुछ ढूंढ़ रहे हैं।
तुम्हें याद है ? तुमने, मैंने,
ले-देकर इस दौड़-भाग में
क्या पाया है, क्या खोया है ?
घूम-घूमकर सांझ सकारे, थककर हारे,
बंजारे दिन, क्या ढूंढ़ रहे हैं ?
पर्वत-पर्वत नदी किनारे,
लिए हाथ में हाथ तुम्हारा, तुम्हें याद है ?
तेरी याद में, मेरा दिल कितना रोया है ?
सुलग-सुलगकर, जलते, बुझते
दिन बेचारे, धुआं-धुआं से ऊंघ रहे हैं।
बंजारे दिन घूम रहे हैं।