भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अन्तिम नमस्कार / मलय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:27, 19 अक्टूबर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मलय }} {{KKCatKavita}} <poem> समाहित तरलता लिए हु...' के साथ नया पन्ना बनाया)
समाहित तरलता लिए हुए
रुकता नहीं हठ में
पानी की तरह
आजू-बाजू के
पत्थरों से पिसकर
बोलती-बहती धार हो जाता हूँ
तारों की टिमकती हठ को
कोई रात
रोक नहीं पाती है
गति का गरिमामय सार
अपने उजागर होने के
प्रकाश में
किनारे पर
अपनी परछाईं में
बँधे हुए लोगों से
कहता हूँ
अन्तिम नमस्कार ।