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हुई न हिम्मत कुछ समझाए
वह बुढ़िया को अक़्ल सिखाए,
लौटा वह नीले सागर पर
सागर में तूफ़ान भयंकर,
लहरें गुस्से से बल खाएँ,
उछलें, कूदें, शोर मचाएँ,
स्वर्ण मीन को पुनः पुकारा
मछली चीर तभी जल-धारा,
आई पास और यह पूछा-
"बाबा क्यों है मुझे बुलाया ?"
बूढ़े ने झट शीश नवाया-
"सुनो व्यथा मेरी, जल-रानी
तुम्हें सुनाऊँ दर्द-कहानी,
उस बुढ़िया से कैसे निपटूँ ?
अक़्ल भला कैसे उसको दूँ ?
नहीं चाहती रहना रानी
बात नई अब मन में ठानी,
चाहे, हुक़्म चले पानी पर
सागर और महासागर पर,
जल में हो उसका सिंहासन
सभी सागरों पर हो शासन,
तुम ख़ुद उसका हुक़्म बजाओ
वह जो माँगे, लेकर आओ ।"
स्वर्ण मीन ने दिया न उत्तर
केवल अपनी पूँछ हिलाकर,
चली गई गहरे सागर में
और खो गई कहीं लहर में ।
बूढ़ा तट पर आस लगाए
रहा देर तक नज़र जमाए,
मीन न लौटी, वह घर आया
उसी कुटी को सम्मुख पाया,
चौखट पर बैठी थी बुढ़िया
और सामने वही कठौता
वही तसला था
जिसका टूटा हुआ तला था।
1833
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : मदनलाल मधु