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विरहणी का वसंत-गीत/वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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तड़प रहा है मनवा नैना हैं नम
वासन्ती दिन आये आजा प्रियतम
आजा बालम

दिवसों ने त्यागे हैं धुंधले परिधान
सोने सी किरणों की चादर ली तान
रैनों ने त्यागी है ठिठुरन की रीत
जोड़ी है गर्म-शीत समता से प्रीत
नाचतीं हवाओं के संग सुगंधें
भ्रमरों ने मधुवन में छेड़ी सरगम
तड़प रहा है मनवा..............................

कोयल की कूक लगे कौवे की काँव
निर्जन सा लगता है ये सारा गाँव
भाते ना बाग़ों के सतरंगी फूल
चुभते हैं आँखों में जैसे हों शूल
सुखदायी यह ऋतु भी दुखदायी है
तुम बिन हर मौसम है दुख का मौसम
तड़प रहा है मनवा..............................

सुनहरी छटाओं में कहाँ वो उमंग
सरसों के पीत वसन दिखते बदरंग
दूर हो तुम्हीं तो फिर कैसा उल्लास
संग हो तुम्हारा तो पतझड़ मधुमास
अंतस में विष ही विष घुलता जाता
डसता है ये महका महका आलम
तड़प रहा है मनवा..............................