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कुछ मुक्तक /वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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(1) दुर्भाग्य के प्रति

कब तलक ख़्वाबों के झूले में झुलाएगा मुझे
कब तलक यह वक्त यूं ही आज़माएगा मुझे
साक़िए-क़िस्मत खुशी का एक प्याला तो पिला
ग़म के प्याले कब तलक यूं ही पिलाएगा मुझे

(2)दौलत का दम भरने वालों के प्रति
 
होगे दुनिया के सरताज क्या कर लोगे
होकर तुम मुझसे नाराज़ क्या कर लोगे
तुमको दौलत पे है गुरूर तो हमको भी
अपने फक्कड़पन पर नाज़ क्या कर लोगे

(3) घोर भौतिकतावादियों के प्रति

चाँद को नीला कहेंगे बुद्धिजीवी लोग हैं
खुद को कब ढीला कहेंगे बुद्धिजीवी लोग हैं
यूँ तो मिसरी घोलते बोलेंगे, मौक़े पर मगर
कथ्य ज़हरीला कहेंगे बुद्धिजीवी लोग हैं

(4) उपनाम के प्रति

भावना में बह गया हूँ अन्यथा मत लीजिए
मैं बहुत कुछ कह गया हूँ अन्यथा मत लीजिए
आप सब के बीच रहकर भी स्वयं को भूल से
मैं ‘अकेला’ कह गया हूँ अन्यथा मत लीजिए

(5) पहली फुहार के प्रति

आकाश पे असाढ़ के घन झूमने लगे
ये देख के उदास चमन झूमने लगे
घूँघट हटा घटा का हँसीं चंद्र-रश्मियाँ
ऐसे में क्यों न मस्त पवन झूमने लगे

(6) वर्तमान के प्रति

बावला पैसों की ख़ातिर यूँ हुआ इंसान है
दाँव पर ‘गीता’ लगी है दाँव पर ‘कुरआन’ है
छल-कपट और झूठ का है बोलबाला हर तरफ़
कौड़ियों के दाम देखो बिक रहा ईमान है

(7) ज़िन्दगी के प्रति

तेरे ख़ातिर तरसते गयी ज़िन्दगी
बादलों सी बरसते गयी ज़िन्दगी
हम बुलाते रहे पास आयी नहीं
हमको करके नमस्ते गयी ज़िन्दगी

(8) स्वीकारोक्ति

कविता के मर्म तक नहीं पहुंचे
हर अपने कर्म तक नहीं पहुंचे
आडम्बर में सदा रहे खोए
ये सच है धर्म तक नहीं पहुंचे

(9) भविष्य के प्रति

ना सही पास दूर निकलेगा
कोई रस्ता ज़रूर निकलेगा
खुल के चमकेगा आफ़ताब ज़रूर
बादलों का गुरूर निकलेगा