भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुकारता चला हूँ मैं / मजरूह सुल्तानपुरी
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:40, 22 नवम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मजरूह सुल्तानपुरी }} {{KKCatGeet}} <poem> पुकार...' के साथ नया पन्ना बनाया)
पुकारता चला हूँ मैं
गली गली बहार की
बस एक छाँव ज़ुल्फ़ की
बस इक निगाह प्यार की
पुकारता चला हूँ मैं
ये दिल्लगी ये शोखियाँ सलाम की
यहीं तो बात हो रही है काम की
कोई तो मुड़ के देख लेगा इस तरफ़
कोई नज़र तो होगी मेरे नाम की
पुकारता चला हूँ मैं
सुनी मेरी सदा तो किस यक़ीन से
घटा उतर के आ गयी ज़मीन पे
रही यही लगन तो ऐ दिल\-ए\-जवाँ
असर भी हो रहेगा इक हसीन पे
पुकारता चला हूँ मैं