भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आदमी मुसाफ़िर है / आनंद बख़्शी
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:24, 27 नवम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आनंद बख़्शी }} {{KKCatGeet}} <poem> आदमी मुसाफ़...' के साथ नया पन्ना बनाया)
आदमी मुसाफ़िर है आता है जाता है
आते-जाते रस्ते में यादें छोड़ जाता है
झोंका हवा का पानी का रेला
झोंका हवा का पानी का रेला
मेले में रह जाए जो अकेला
मेले में रह जाए जो अकेला
वो फिर अकेला ही रह जाता है
आदमी मुसाफ़िर है ...
क्या साथ लाए क्या छोड़ आए
रस्ते में हम क्या छोड़ आए
मंज़िल पे जा के ही याद आता है
आदमी मुसाफ़िर है ...
जब डोलती है जीवन की नैया
कोई तो बन जाता है खिवैया
कोई किनारे पे ही डूब जाता है
आदमी मुसाफ़िर है ...
रोती है आँख जलता है ये दिल
जब अपने घर के फेंके दिये से
आँगन पराया जगमगाता है
आदमी मुसाफ़िर है ...