Last modified on 28 नवम्बर 2011, at 12:38

सारे शहर में आपसा कोई नहीं / आनंद बख़्शी

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:38, 28 नवम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आनंद बख़्शी }} {{KKCatGeet}} <poem> र : सारे शहर म...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

 
र : सारे शहर में आपसा कोई नहीं, कोई नहीं

आ : सच

र : सारे शहर में ...

आ : यही सोचकर रात भर मैं सोई नहीं, सोई नहीं

र : सारे शहर में ...
तुमको मेरी वफ़ा पे जाने क्या-क्या ग़ुमाँ हो रहे हैं
कितना भी तुम छुपाओ अफ़साने बयाँ हो रहे हैं
इश्क़ करता हूँ आशिक़ मेरा नाम है

आ : आह आशिक़ ह ह ह ह

र : इश्क़ करता हूँ आशिक़ मेरा नाम है
ऐश करना मेरी जाँ मेरा काम है

आ : ऐसे भी हो तुम वैसे भी हो तुम जैसे भी हो
हमको शिक़ायत आपसे कोई नहीं, कोई नहीं
सारे शहर में ...

र : मेरा दिल जिसपे फ़िदा है वो दिलबर वो महबूब हो तुम

आ : थोड़े से तुम हो ज़िद्दी पर आदमी बहुत ख़ूब हो तुम

र : ऐ हसीना बड़ी ख़ूबसूरत हो तुम
मुस्कराती हुई कोई मूरत हो तुम

आ : ऐ जान-ए-जाँ खोए हो कहाँ
कोई तुम्हारी चीज़ तो खोई नहीं, खोई नहीं

र : सारे शहर में ...