भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दियासलाई की तीली / सुकान्त भट्टाचार्य

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:59, 3 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुकान्त भट्टाचार्य |संग्रह= }} {{KKCatKavit...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं दियासलाई की एक छोटी तीली
अति नगण्य, सबकी नज़र से ओझल
फ़िर भी बारूद कसमसाता है मुँह के भीतर
सीने में जल उठने को बेचैन एक साँस

मैं दियासलाई की एक छोटी तीली ।

कैसी उथल-पुथल मच गई उस दिन
जब घर के एक कोने में जल उठी आग
बस, इसलिए कि नाफ़रमानी के साथ
बिन बुझाए फेंक दिया था मुझे
कितने घर जला कर किए ख़ाक
कितने प्रासाद धूल में मिला दिए
मैंने अकेले ही - मैं दियासलाई की एक छोटी तीली ।

कितने शहर कितनी रियासतें
कर सकती हूँ मैं सुपुर्दे ख़ाक
क्या अब भी करोगे नाफ़रमानी
क्या तुम भूल गए उस दिन की बात
जब जल उठे थे हम एक साथ एक बक्से में
और चकित तुम - हमने सुना उस दिन
तुम्हारे विवर्ण मुख से एक आर्त्तनाद ।

हमारी बेइन्तहा ताक़त का एहसास
बार-बार करने के बावजूद
तुम समझते क्यों नहीं
कि हम क़ैद नहीं रहेंगे तुम्हारी जेबों में
हम निकल पड़ेंगे , हम फ़ैल जाएँगे
शहरों कस्बों गाँवों - दिशाओं से दिशाओं तक ।

हम बार-बार जले नितान्त उपेक्षित
जैसा कि जानते ही हो तुम
तुम्हें बस यही नहीं मालूम
कि कब जल उठेंगे हम
आख़िरी बार के लिए ।

मूल बंगला से अनुवाद : नील कमल