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इच्छा की कली / नरेन्द्र शर्मा
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कुचल दूँ पाँवों तले क्या मधुर इच्छा की कली?
रगें उसकी, रक्त मेरा, कली जिससे लाल है;
कली खिलती, सूखती मेरे हृदय की डाल है;
कौन जाने और भी परिणति बुरी हो या भली?
कामना करना सहज यों तो हृदय का धर्म है;
और उसके हित भटकना इन्द्रियों का कर्म है;
पर न क्या इस कामना से बुद्धि पहले भी छली?
तुच्छ है यह भावना इच्छा दिया है नाम जिसको;
साधना ही श्रेय, अब तक शुभ हुआ है प्रेय किसको;
कहाँ पारस, छू जिसे लोहा बने कांचन-डली?
अतः मन की मुरलिके, मत गान गा तू कामना का!
इष्ट है तेरे लिये--साधन बने तू साधना का!
नहीं जल से, जल अनल से द्रवित हो प्रतिमा ढली!