भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माया-कानन / नरेन्द्र शर्मा

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:08, 6 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा |संग्रह=बहुत रात गए...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अजाना रे माया-कानन!
स्वप्न पंख का पंछीड़ा मैं, नील सुनील गगन!

चुग्गा डाल, जाल फैलाती,
माया मोहन वेणु बजाती,
पास बुलाती गीत-विहग को माया की चितवन!

चतुर अहेरिन, निर्मम वन्या,
मैं अम्बरसुत, वह वनकन्या,
चुंबक अधर-प्रवाल, खेलता जिनपर सम्मोहन!

मेरा वास शून्य के भीतर,
है वह हरी-भरी धरती पर,
फूलों की घाटी में होगा निश्चय अधोसरण!

वह अगीत ध्वनि, विश्वप्रिया है;
छंदातीत अबंध क्रिया है,
मुक्ति-गीत की गीति-मुक्ति ध्रुव, ध्रुव है महामरण!

सघन कालिमा हरित सिंधु पर,
खड़ी लालिमा मध्य बिंदु पर,
जपाकुसुमकर मृत्यु दे रही अनुक्षण नवजीवन!