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माया-कानन / नरेन्द्र शर्मा
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अजाना रे माया-कानन!
स्वप्न पंख का पंछीड़ा मैं, नील सुनील गगन!
चुग्गा डाल, जाल फैलाती,
माया मोहन वेणु बजाती,
पास बुलाती गीत-विहग को माया की चितवन!
चतुर अहेरिन, निर्मम वन्या,
मैं अम्बरसुत, वह वनकन्या,
चुंबक अधर-प्रवाल, खेलता जिनपर सम्मोहन!
मेरा वास शून्य के भीतर,
है वह हरी-भरी धरती पर,
फूलों की घाटी में होगा निश्चय अधोसरण!
वह अगीत ध्वनि, विश्वप्रिया है;
छंदातीत अबंध क्रिया है,
मुक्ति-गीत की गीति-मुक्ति ध्रुव, ध्रुव है महामरण!
सघन कालिमा हरित सिंधु पर,
खड़ी लालिमा मध्य बिंदु पर,
जपाकुसुमकर मृत्यु दे रही अनुक्षण नवजीवन!