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प्रथम प्रभात / जयशंकर प्रसाद

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मनोवृत्तियाँ खग-कुल-सी थी सो रही,

अन्तःकरण नवीन मनोहर नीड़ में

नील गगन-सा शान्त हृदय भी हो रहा,

बाह्य आन्तरिक प्रकृति सभी सोती रही


स्पन्दन-हीन नवीन मुकुल-मन तृष्ट था

अपने ही प्रच्छन्न विमल मकरन्द से

अहा! अचानक किस मलयानिल ने तभी,

(फूलों के सौरभ से पूरा लदा हुआ)-


आते ही कर स्पर्श गुदगुदाया हमें,

खूली आँख, आनन्द-हृदय दिखला दिया

मनोवेग मधुकर-सा फिर तो गूँजके,

मधुर-मधुर स्वर्गीय गान गाने लगा


वर्षा होने लगी कुसुम-मकरन्द की,

प्राण-पपीहा बोल उठा आनन्द में,

कैसी छवि ने बाल अरुण सी प्रकट हो,

शून्य हृदय को नवल राग-रंजित किया


सद्यःस्नात हुआ फिर प्रेम-सुतीर्थ में,

मन पवित्र उत्साहपूर्ण भी हो गया,

विश्व विमल आनन्द भवन-सा बन रहा

मेरे जीवन का वह प्रथम प्रभात था