Last modified on 7 दिसम्बर 2011, at 11:27

चाहता हूँ दूर जाना / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:27, 7 दिसम्बर 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

चाहता हूँ दूर जाना।

चल चुका जितना, नहीं
उससे मुझे संतोष कुछ भी,
राह लंबी है, न उसमें
कोस या दो कोस कुछ भी।
चढ़ शिखर पर मृत्यु के, औ’
कूद जीवन-सिंधु में मैं
रत्न जो बिखरे पड़े हैं
चाहता हूँ ढूँढ लाना।

जन्म से ही मैं धरा की
गोद में हँसता रहा हूँ,
और जीवन में बसंती
फूल-सा खिलता रहा हूँ
मृत्यु की काली निशा में
एक मैं मिटकर अनेकों
तारकों-सा नील नभ में
चाहता हूँ मुस्कराना।