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हार ही में जीत है / रामनरेश त्रिपाठी
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तुम पुरुष हो, डर रहे हो व्यर्थ ही संसार से।
जीत लेते हो नहीं क्यों त्याग से उपकार से?
सिर कटाकर जी उठा उस दीप की देखो दशा।
दब रहा था जो अँधेरे के निरंतर भार से॥
पिस गई तब प्रेमिका के हाथ चढ़ चूमी गई।
मान मेहँदी को मिला है प्राण के उपहार से॥
तन दिया, पीसा गया अंजन बना तब काम का।
तब उसे रक्खा दृगों में प्रेमियों ने प्यार से॥
लेखनी ने जीभ दी तब वह मिली भाषा उसे।
जो अमर बनकर बचाती सृष्टि को संसार से॥
प्रेम के पथ में यहाँ तो हार ही में जीत है।
भक्त को भगवान मिलते हैं हृदय की हार से॥