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जब मैं अति विकल खड़ा था / रामनरेश त्रिपाठी

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जब मैं अति विकल खड़ा था
इस जीवन के घन वन में।
अगम अपार चतुर्दिक तम था,
न थीं दिशाएँ केवल भ्रम था,
साथी एक निरंतर श्रम था,
या था पथ निर्जन में।
इस जीवन के घन वन में॥
आकर कौन हँस गया तम में,
अमित मिठास भर गया श्रम में,
पथ है, किंतु प्रकाश भर उठा
एक एक रज-कन में।
इस जीवन के घन वन में॥