भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़ुशबू / विश्वनाथप्रसाद तिवारी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:43, 11 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विश्वनाथप्रसाद तिवारी |संग्रह=बे...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इतिहास मौन था
उन लड़ाइयों के बारे में
जो लड़ी नहीं गईं
लेकिन जिनमें एक पक्ष विजेता रहा

वे चार को खड़ा करते थे
और एक को मार देते थे
तीन को सबक़ सिखाने के लिए

एक खनिक जो कोयले को
सोने में तब्दील करता था
बदहवास
छिपने की जगह तलाश रहा था

झुग्गियों के लिग
टाटी लगाए दुबके थे
जिनके सीने धक-धक कर रहे थे
गोलाबार की आवाज़ें सुनते हुए

मैंने तरह-तरह के आदमी देखे हैं
लेकिन कितनी शक्ति है उसमें
वह आज तक नहीं नाप सका

मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ
लेकिन यह सच है
कि मैंने उसकी आत्मा को
हवा की तरंगों में घुसते देखा था

वह मर रहा था
और सुबह के घंटे बज रहे थे

उसकी मृत्यु से एक ख़ुशबू
उड़ रही थी चारों ओर ।