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ज़हन में बल्लम / रमेश रंजक

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शिला सीने पर धरी है
                  घुट रहा है दम
क्या इसी दिन के लिए
                   पैदा हुए थे हम

पसलियों के चटखने को
                    व्यर्थ जाने दूँ
डबडबाई आँख
            बाहर निकल आने दूँ

गड़ रहा है ज़हन में बल्लम

बेरहम ठोकर समय की
                    बेशरम ग़ाली
किस तरह इनकी चुकाऊँ
                    ब्याज पंचाली

खोपड़ी में फट रहे हैं बम