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देहरी के फूल / रमेश रंजक
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सुनो !
पीले साँप सड़कों पर निकल आए
पेट तक मुड़ने लगे घुटने
खुली दूकान के
उड़ गए टुकड़े कई
सिगरेट, बीड़ी, पान के
आँख भीगी देहरी के फूल कुम्हलाए
सड़क के विस्तार में
सिक्के गले, सिक्के ढले
वक़्त के निचुड़े हुए
इन्सान, बूटों के तले !
यम, नियम को खाल में चारों तरफ़ छाए