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दूर्वांचल / अज्ञेय
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पार्श्व गिरी का नम्र, चीड़ों में
डगर चढ़ती उमंगों-सी।
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।
विहग-शिशु मौन नीड़ों में।
मैंने आँख भर देखा।
दिया मन को दिलासा-- पुन: आऊंगा।
(भले ही बरस दिन-- अनगिन युगों के बाद !)
क्षितिज ने पलक-सी खोली,
तमक कर दामिनी बोली--
'अरे यायावर, रहेगा याद?'