भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अंतिम आलोक / अज्ञेय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:23, 17 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=सुनहरे शैवाल / अज्ञ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
सन्ध्या की किरण-परी ने
उठ अरुण पंख दो खोले
कम्पित-कर गिरि-शिखरों के
उर-छिपे रहस्य टटोले ।
देखी उस अरुण किरण ने
कुल पर्वत-माला श्यामल
बस एक शृंग पर हिम का
था कम्पित कंचन झलमल ।
प्राणों में हाय पुरानी
क्यों कसक जग उठी सहसा ?
वेदना-व्योम से मानो
खोया-सा स्मृति-घन बरसा !
तेरी उस अन्त-घड़ी में
तेरी आँखों में, जीवन !
ऐसा ही चमक उठा था
तेरा अन्तिम आँसू-कन !