भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यही बच रही / रघुवीर सहाय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:38, 19 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रघुवीर सहाय |संग्रह=सीढ़ि‍यों पर ध...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिन यदि चले गए वैभव के
तृष्णा के तो नहीं गए
साधन सुख के गए हमारे
रचना के तो नहीं गए

जो कुछ झेला था इस तन पर
वह इस मन को दे डाला
फिर भी बहुत बची है
चुम्बन में जीवन की मधु-ज्वाला

वही बच रही कोपल
आँधी ने जब टहनी दी झकझोर
भूसी का कबिरा क्या करता
तत्त्व तत्त्व रख लिया पछोर ।