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मर्म / रघुवीर सहाय
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तू हतविक्रम श्रमहीन दीन
निज तन के आलस से मलीन
माना यह कुण्ठा है युगीन
पर तेरा कोई धर्म नहीं ?
यह रिक्त-अर्थ उन्मुक्त छन्द
संस्मरणहीन जैसे सुगन्ध,
यह तेरे मन का कुप्रबन्ध—
यह तो जीवन का मर्म नहीं ।