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लन्दन डायरी-15 / नीलाभ

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मैं, जो अपने शहर से दूर, अपने लोगों से दूर
यहाँ एक अनजानी ज़मीन पर चला आया हूँ
मगर ज़िन्दगी खुलती है
हर रोज़
मेरे सामने
पंखुडि़यों की तरह खुलते हैं दिन

आह! ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है
पत्तियों को थरथराती हुई हवा
आकाश पर तनी नीली मख़मल की चादर
पेड़ों की फुनगियों पर
पतंग की तरह अटकी हुई धूप
ज़िन्दा होने का एहसास
कितना ख़ूबसूरत है यह सब कुछ
यहाँ के लोग नहीं तो न सही
यह सारी दुनिया तो मेरी परिचित है
यह हवा, यह घास, यह पेड़
ये हाथों की तरह हिलती हुई पत्तियाँ