भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लन्दन डायरी-3 / नीलाभ

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:26, 19 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीलाभ |संग्रह=चीज़ें उपस्थित हैं / ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इसी तरह शुरू होता है दिन
इसी तरह ख़त्म होता है
उठें हुए बाज़ुओं की कतार
थकती है
विरोध में उठे हुए सिर
झुकते हैं
झुकते हैं लहराते हुए झण्डे
ठहरे पानी में
सड़ते हैं दिनों के झरे हुए पत्ते
अँधेरे में खामोशी से
सुलगती हैं हमारी रातें
नींद के निरापद आतंक में
शहर चीनी के डलों की तरह घुलते हैं
सड़कें आपस में उलझती हैं
सिवैयों की तरह और इमारतें
बर्फ़ी के टुकड़ों की तरह
गड्ड-मड्ड होती हैं
नींद के निरापद आतंक में