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अजगर के पाँव / रमेश रंजक
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अजगर के पाँव दिए जीवन को
और समय को डैने
ऐसा क्या पाप किया था मैंने ?
लहरों की भीड़ मुझे धकिया कर
जा लगी किनारे
झूलता रहा मेरा तिनकापन
भाग्य के सहारे
कुन्दन विश्वासों ने चुभो दिए
अनगिन नश्तर पैने
ऐसा क्या पाप किया था मैंने ?
शीशे का बाल हो गई टूटन
बिम्ब लड़खड़ाए
रोशनी अँधेरे से कितने दिन
और मार खाए ?
पूछा है झुँझला कर राहों से
पाँवों के बरवै ने
ऐसा क्या पाप किया था मैंने ?