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जश्न / देविंदर कौर

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न ख़त की प्रतीक्षा
न किसी आमद का इंतज़ार
न मिलन-बेला की सतरंगी पींग के झूले
न बिछुड़ने के समय की कौल-करारों की मिठास...

वह होता है...
रौनक ही रौनक होती है
वह नहीं होता तो
सुनसान रौनक होती है
रौनक मेरी सँसों में धड़कती है

मेरी मिट्टी में से एक सुगंध
निरंतर उठती रहती है
मैं उस सुगंध में मुग्ध
सारे कार्य-कलाप पूरे कर
घर लौटती हूँ

लक्ष्मी का बस्ता खूँटी पर टाँगती हूँ
मेनका की आह से गीत लिखती हूँ
पार्वती के चरणों में अगरबत्ती जलाती हूँ
सरस्वती के शब्दों के संग टेर लगाती हूँ

इस तरह
अपने होने का जश्न मनाती हूँ ।