भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अदृश्य नाल से जुड़ी थीं कथाएँ / सुधीर सक्सेना

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:01, 1 जनवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधीर सक्सेना }} <Poem> श्वेत और श्याम ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

श्वेत और श्याम की
पसंद में विभाजित
जनों के लिए
मुश्किल था धूसर से लगाव
कि धूसर
न श्वेत था, न श्याम
या कि था श्वेत भी, श्याम भी
और यह भी कि वहाँ
कोई विभाजक रेखा न थी
श्वेत और श्याम के दरम्याँ

वन में परागण आसान न था
बिना विकिरण
और बिना उत्कीर्णन
मुमकिन न था गढ़ना शिल्प
हालाँकि बुत पहले ही निहाँ था
संग के आगोश में

कि देवदासियों ने बचा रखी थी कलाएँ,
शोहदों ने ऐब
और रोमाओं ने बहुत सारे रिवाज़
और तो और बहुत सारे शब्द
बचा लिए थे इतिहास की
कन्दरा में छिपे भगोड़ों ने
दफ़्न होने से

अँधेरे ने अपनी कुक्षि में
सहेजे हुए थे उजाले के बीज
और सिर्फ़ नाउम्मीदों से
बची थी उम्मीद को उम्मीद

:

आँसुओं को कोई भी अथाह
समुन्दर न था कश्तियों से वीरां,
हर लहर की स्मृति में थी दर्ज़
न सही जलपोत या नौका
एक अदद नन्हीं-सी डोंगी

किसी भी अध्याय का अंत
नहीं था समापन-कथा का
हर अध्याय पूर्व-पीठिका था
कभी साभास, तो कभी अनाभास
अगले अध्याय का

एक अदृश्य नाल से जुड़ी थीं
दुनिया भर की सारी कथाएँ
और यकसां था
दुनिया की सारी कविताओं का
मूलपाठ

वास्तविकता नहीं
सुविधा थी
तारीख़ जनम और मरण की
कि चीज़ों का
न कोई आदि था, न अंत
बाज़ वक्त कई जनमों का एक जनम
और कई दफ़ा एक ज़िन्दगी में थीं
एक नहीं, कई-कई ज़िंदगियाँ
बाज़ वक़्त
या कि हमेशा-हमेशा .

:

शम्म का
हर रंग में
जलना तय था सहर होने तक
अलबत्ता कोई नहीं
जानता था कि कब आएगी सुबह ,
अलबत्ता जानता था हरेक
नज़ूमी कोई न था
न वहाँ, जिन्हें था बेतरह यकीं ,
न वहाँ, जिन्हे था
सुबह होने में शुबहा