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मुम्बई / फ़रीद खान

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मुम्बई को कौन चला रहा है यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता ।

लोकल का रेला आपको ट्रेन में कैसे चढ़ा देता है पता भी नहीं चलता ।
बस की क़तारों में खड़े आप कब बस में चढ़ कर
अपने गंतव्य पर ठीक-ठीक कैसे उतर जाते हैं, पता नहीं ।

वह कब चलना शुरु करती है, कब सुस्ताती है, किसी ने कभी देखा नहीं ।
वास्तव में कभी सोचा नहीं कि क्यों चलती भी है ।

घर के बाहर आप अपनी गाड़ियाँ छोड़ सकते हैं,
फिर भी मुम्बई अपनी गति से चलती ही रहेगी, उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता ।
दंगे, धमाके, मुठभेड़, हमले,
सब हो जाएँगे लेकिन औरों की तरह मुम्बई कभी रुकती नहीं ।

जो भी उसकी लय में आ गया,
वह हो गया...... मुम्बई का ।
फिर वह ट्रेनों की तरह एक जगह से खुल कर दूसरी जगह
और फिर वापस उसी जगह, घूम सकता है ।

कोई कुछ भी कहे ।
कोई आए ।
कोई जाए ।
कोई कितना भी रोए ।
कोई कितना भी हँसे ।
मुम्बई की गति नहीं रुकती ।

अंबानी की सत्ताईसवीं मंज़िल से देखें
तो एक ऐसा खेत नज़र आता है,
जिसमें फूल गोभी से सुँदर-सुँदर मॉल उगे हैं ।
लहलहाती इमारतें उगी हैं ।
और जहाँ ज़मीन या जंगल बचे हैं, वहाँ काम चालू आहे ।

और मुम्बई चल रही है ।

आपके पास हालाँकि ढेरों सवाल हो सकते हैं, लेकिन
मुम्बई चुप्पी साधे बस चल रही है,
ब्रह्मांड की तरह ।